आज के जमाने में व्यक्ति को अपने पड़ोसी से कोई मतलब नहीं रहता। यदि कोई उसे मार रहा हो तो वह बचाने की कोशिश नहीं करता, लेकिन वह यह भूल जाता है कि अगली बारी उसकी हो सकती है। इसी को आधार बनाकर राजकुमार संतोषी ने ‘हल्ला बोल’ का निर्माण किया है।
अशफाक (अजय देवगन) एक छोटे शहर में रहने वाला युवक है। फिल्मों में काम करना उसका ख्वाब है और इसलिए वह सिद्धू (पंकज कपूर) के साथ नुक्कड़ नाटक करता है। सिद्धांतवादी और सच बोलने वाला अशफाक अभिनय की बारीकियाँ सीखने के बाद मुंबई पहुँच जाता है और फिल्मों में काम पाने की उसकी शुरूआत झूठ से होती है।
धीरे-धीरे वह सफलता की सीढि़याँ चढ़ता जात है और अशफाक से समीर खान नामक सुपरस्टार बन जाता है। अपनी सुपरस्टार की इमेज को सच मानकर वह अपना वजूद खो देता है। सफलता का नशा उसके दिमाग में चढ़ जाता है। इस वजह से उसके गुरु सिद्धू, पत्नी स्नेहा (विद्या बालन) और माता-पिता उससे दूर हो जाते हैं।
एक दिन एक पार्टी में उसके सामने एक लड़की का खून हो जाता है। खूनी को पहचानने के बावजूद समीर इस मामले में चुप रहना ही बेहतर समझता है क्योंकि उसे डर रहता है कि वह पुलिस और अदालतों के चक्कर में उलझा तो उसकी सुपरस्टार की छवि खराब हो सकती है।
सुपरस्टार समीर और अशफाक में अंतर्द्वंद्व चलता है और जीत अशफाक की होती है। वह पुलिस के सामने जाकर उन दो हत्यारों की पहचान कर लेता है। वे दोनों हत्यारे बहुत बड़े नेता और उद्योगपति के बेटे रहते हैं। वह नेता और उद्योगपति समीर को धमकाते हैं, लेकिन वह नहीं डरता। अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हुए वह नेता अदालत में समीर को झूठा साबित कर देता है।
समीर को अहसास होता है कि परदे पर हीरोगिरी करने में और असल जिंदगी में कितना फर्क है। वह अपने गुरु सिद्धू की मदद से ‘हल्ला बोल’ नामक नाटक का सड़कों पर प्रदर्शन करता है और जनता तथा मीडिया की मदद से हत्यारों को सजा दिलवाता है।
राजकुमार संतोषी ने इस कहानी को बॉलीवुड के हीरो के माध्यम से कही है। उनके मन में आमिर खान का आंदोलन को समर्थन देना, मॉडल जेसिका लाल और सफदर हाशमी हत्याकाँड था। उन्होंने इन घटनाओं से प्रेरणा लेकर कहानी लिखी।
पहले हॉफ में उन्होंने बॉलीवुड के उन तमाम सुपरस्टार्स की पोल खोली जो पैसों की खातिर बेगानी शादियों में नाचते हैं। एक संवाद है ‘यदि पैसा मिले तो ये मय्यत में रोने भी चले जाएँ।‘
एक सुपरस्टार खुद अपनी इमेज में ही किस तरह कैद हो जाता है, इस कशमकश को उन्होंने बेहतरीन तरीके से दिखाया है। समीर खान का सड़क पर आकर न्याय माँगने के संघर्ष को उन्होंने कम फुटेज दिया, इस वजह से फिल्म का अंत कमजोर हो गया है। मध्यांतर के बाद फिल्म को संपादित कर कम से कम बीस मिनट छोटा किया जा सकता है।
फिल्म में कई दृश्य हैं जो दर्शकों को ताली पिटने पर मजबूर करते हैं। विद्या बालन का प्रेस के सामने आकर अजय का साथ देना। अजय का बेस्ट एक्टर अवॉर्ड जीतने के बाद भाषण देना। अजय का मंत्री के घर जाकर उसका घर गंदा करना। अल्पसंख्यक होने के बावजूद समीर खान का मुस्लिम सुमदाय से मदद लेने से इंकार करना। संवाद इस फिल्म का बेहद सशक्त पहलू हैं। निर्देशक राजकुमार संतोषी ने अधिकांश दृश्यों की समाप्ति एक लाइन के उम्दा संवादों से की हैं।
एक निर्देशक के रूप में राज संतोषी ‘दामिनी’ या ‘घायल’ वाले फॉर्म में तो नहीं दिखे, लेकिन पिछली कई फिल्मों के मुकाबले उनकी यह फिल्म बेहतर है। खासकर फिल्म का मध्यांतर के बाद वाला भाग और सशक्त बनाया जा सकता था।
सुपरस्टार की इमेज में कैद समीर की बैचेनी और सफलता पाने के लिए कुछ भी करने वाले इंसान को अजय देवगन ने परदे पर बेहद अच्छी तरह से पेश किया है। अजय बेहद दुबले-पतले हो गए हैं और उनका चेहरा पिचक गया है। उन्हें अपने लुक पर ध्यान देना चाहिए। विद्या बालन के लिए अभिनय का ज्यादा स्कोप नहीं था, लेकिन दो-तीन दृश्यों में उन्होंने अपनी चमक दिखाई। पंकज कपूर ने सिद्धू के रूप में गजब ढा दिया। पता नहीं यह उम्दा अभिनेता कम फिल्मों में क्यों दिखाई देता है। दर्शन जरीवाला, अंजन श्रीवास्तव के साथ अन्य कलाकारों से भी संतोषी ने अच्छा काम लिया है।
कुल मिलाकर ‘हल्ला बोल’ में वे तत्व हैं जो दर्शकों को अच्छे लगे। एक बार यह फिल्म देखी जा सकती है।
निर्माता : अब्दुल सामी सिद्दकी
निर्देशन-कथा-पटकथा-संवाद : राजकुमार संतोषी
संगीत : सुखविंदर सिंह
कलाकार : अजय देवगन, विद्या बालन, पंकज कपूर, दर्शन जरीवाला (विशेष भूमिका - करीना कपूर, सयाली भगत, तुषार कपूर, श्रीदेवी, बोनी कपूर, जैकी श्रॉफ)
रेटिंग : 3/5
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